Tuesday, November 4, 2008

'लाज लजाती जिनकी कृति से `

'लाज लजाती जिनकी कृति से `
सियाशत की कुटिल चालों में भावना का स्थान नहीं के बराबर होता है यह तो सुना था किन्तु उसमें एतनी निर्लज्जता होती है, इसकी कल्पना आम जनता शायद ही की हो ।
विचित्र विडम्बना है। समाज में जहाँ एक ओर बलात्कार के लिये फ़ांसी की सजा देने की वकालत की जा रही है वहीं दूसरी ओर मानवता की सभी हदों को पार कर अपनी पुत्र-वधू के साथ दुष्कर्म करने वाले उस नर-पिशाच को फांसी देने की मांग करने के बजाय पीडिता को सरियत का पाठ पढाकर, उसपर बलात्कारी दरिंदे ससुर के साथ पत्नी रूप में रहने के लिए दबाब डाला जा रहा है । पति से सम्बन्ध विच्छेद करने को विवश किया जा रहा है । कितना घृणित है यह न्याय ! कल तक इमराना जिसे पिता के रूप में देखती रहीं होगी, उस विक्षिप्त को पति मान ले और जो कल तक उसका पति रहा, जिससे उसके पाघ्च बच्चे हैं , उसे वह पुत्रवत मान ले ।वाह रे समाज...,वाह रे सभ्यता....,वाह रे संस्कृति, वाह रे धार्मिक ठीकेदार....। समाज में ऐसी विकृति फैलाने वाले को कड़ी से कड़ी सजा दी जानी चाहिए । किन्तु सरकार चुप..., मुख्यमंत्री जी, इस पंचयती में दखल नहीं देना चाहते, कहीं वोट न बिगर जाय । प्रधान मंत्री चुप....,राज्य का मामला है । सघाधारी पार्टी की अध्यक्षा सोनिया गाघ्धी चुप...., आखिर राजनीति है । धिक्कार है उनके महिला होने पर । राजनितिज्ञ बनने से पहले वह एक महिला हैं यह भी भूल गईं । राष्टघ् एक, पर राष्टघ् का कानून दो । देश के कानून के तहत विवाह का उम्र अठारह वर्ष और मॉडल निकाहनामा में पन्द्रह वर्ष । एक के बलात्कारी को फ़ांसी, दूसरी को सरियती नियमों के तहत, उस बलात्कारी ससुर के साथ पत्नी रूप में रहने की नसीहत, पति से संबंध तोर लेने का दबाव। यदि यही है धर्मनिर्पेक्षता, तो ऐसा धर्मनिर्पेक्ष राष्ट्र हमें नहीं चाहिए । जिससे समस्त देश को शर्मसार होना परे। इससे तो पाकिस्तान जैसा इस्लामिक राष्ट्र बेहतर है जहां सरियत के तहत निरपराध घोषित कर छोड़ दिए गए बलात्कारी को वहां के सर्वोच्च न्यायालय ने अपनी ओर से पहल कर कानून के कठघरे में ला खडा किया ।यह ठीक है कि इस राष्ट्र के सभी नागरिक को धर्म की स्वतंत्रता हो । पर ऐसे मामले धर्म के नहीं होते । यह मामला है, कानून और अपराध का, जिसकी दृष्टि में सभी नागरिक समान हैं, और बिना भेद-भाव के सबके लिए समान कानून हो । यह मामला है नारी की सुरक्षा और सम्मान का । किन्तु यह खेल बन कर रह गया । सघा का खेल ! एक मखौल बन गई इमराना । मीडिया ने भी खूब चटकदार बना कर परोसा और लज्जा तथा ग्लानि से मिट्टी में गड़ती गई वह भारत की महिला । जड़ा सोचिए ! क्या हमारा समाज वास्तव मे सभ्य कहलाने योग्य है ? क्या हमें सुसंस्कृत कहलाने का अधिकार है ? मुझे तो दिनकर की पंक्ति याद आती है-

झड़ गयी पूघ्छ पशुता की,रोमांचक झरना बाकी है ।

बाहर-बाहर हम सघ्वर गएभीतर सजना अभी बाकी है ।`

पाठकों ! अन्तिम पन्ना 'अनुपम उपहार` का एक ऐसा पन्ना है जहाघ् हम माहभर के समाचारों में से कुछ संवेदनशील समाचारों को चुनकार उसपर आम जनता के विचरों एवं दृष्टिकोण का खयाल रखते हुए विवेचन विश्लेषण प्रस्तुत करते हैं। विश्लेषणकर्ता जाने माने चिंतक,समीक्षक और इस पत्रिका के सम्पादकीय सलाहकार डा० कलानाथ मिश्र हैं । आपसे निवेदन है कि आप भी इस स्तम्भ के साथ अपनी सहभागिता सिथापित करें । हम आपकी प्रतिघ्यिा और विचारों को भी उचित स्थान देंगे

Monday, October 27, 2008

समाचारों के व्यावसायी करण

समाचारों के व्यावसायी करण

भारतीय पत्रकारिता समय शिला पर अबतक अपनी हस्ताक्षर दर्ज करती रही है। स्वतंत्रता संग्राम में समाचार पत्रों के योगदान को भुलाया नहीं जा सकता है। अंग्रेजी हुकूमत के शिकंजे के बावजूद भारतीय पत्रकारों ने जनता की भावनाओं को वाणी प्रदान की। तद्युगीन हिन्दी पत्रों के सिंहनाद से देश भक्तों की विशाल सेना अंग्रेजी शासन केा मुहतोर जबाव देने के लिए कमर कस ली थी। 'रोटल एक्ट` के विरोध में गाँधी जी ने ७ अप्रैल १९१९ को बिना रजिस्टे्रसन के ही 'सत्याग्रह` साप्ताहिक का प्रकाशन प्रारम्भ किया। इस प्रकार अंगे्रजी शासन को भी ख्ुाली चुनौती भारतीय पत्रकारिता के माध्यम से ही मिली थी। तब से आज तक भारत में पत्रकारिता केा कमोवेश वही सम्मान मिलता रहा है। जनतंत्र का यह चौथा खम्भा विश्व के किसी भी देश की तुलना में भारत में सशक्त है और निरंतर प्रजातांत्रिक प्रणाली को बल देता रहा है। उस दौर के पत्रकारों को यदि प्रकारिता व्यसनी कहा जाय तो उचित होगा, क्यों कि उन दिनों जो भी इस पेशे को अपनाते थे वे मात्र समर्पण (मीशन) भाव से ही इसका चयन करते थे आर्थिक लाभ तो उनदिनों नगन्य ही था। फिर भी अनेक पत्रकारों ने जनतंत्र और राष्ट्रहित को सर्वोपरि मानकर आर्थिक तंगी झेलते हुए भी अपना सम्पूर्ण जीवन इसमें लगा दिया। आज भी अनेक पत्रकार अपने उत्तरदायित्व के प्रति सजग और इमानदार हैं। यह ठीक है कि आज गणेश शंकर विद्यार्थी, और बाबूराव पड़ारकर जैसे आदर्श मिलने मुश्किल हंै। यह भी ठीक है कि आज अनेक पत्रकार भ्रष्ट राजनेताओं से लेकर अपराध जगत के सरगनाओं को भी व्यक्तिगत लाभ के कारण महिमा मंडित करने से नहीं चूकते। समाचारों का खरीद-फरोख्त भी कमोवेश चलता रहता है किन्तु यह भी सही है कि इनकी संख्या आज भी अपवाद तक ही सीमित है। आज भी उन्हीं पत्रकारों में से अनेक ऐसे हैं जो व्यक्तिगत लाभ हानि से दूर उन पथ भ्रष्ट पत्रकार जो पीत पत्रकारिता में संलग्न हैं की भी भर्तस्ना करने से नहीं चूकते। आज भी जनता की आवाज को बुलन्द करने का श्रेय पत्रकारिता को ही जाता है। निश्चित रूप से हर पेशे की तरह पत्रकारिता के आदर्श स्थिति में भी समयानुसार हा्रस आया है, किन्तु आज भी यही एक ऐसा जगत है जो अपने विरादरी की खमियों को भी पुरजोड़ ढ़ंग से विरोध करती है और पत्रकारिता की गरिमा को अक्षुण्ण रखने का प्रयास कर रही है। ऐसी स्थिति में पत्रकारिता को सिर्फ व्यावसायिक दृष्टि से देखना अथवा उसके समाचारों को भी पूर्ण रूप से व्यावसायि कर देने का विचार किसी व्यक्ति के दूरगामी दृष्टि की संकीर्णता का ही प्रमाण देता है।टाईम्स ऑफ ईण्डिया के २५ ,फरवरी २००४ के सम्पादकीय पृष्ठ पर एक अंग्रेजी दैनिक के मनोरंजन पृष्ठ की सम्पादक का आलेख प्राकाशित हुआ था जिसमें उन्हों ने समाचारों को भी पूर्ण व्यावसायिक कर दिए जाने की वकालत की है। आलेख पढने के उपरान्त एैसा लगा कि वो कम से कम भारतीय पत्रकारिता जगत की संस्कृति, इतिहास तथा मूल्यों से वाकिफ नहीं हैं और न ही उन्हें भारतीय बौद्धिक समाज का नब्ज ही पता है। पत्र के प्राकाशक और पत्रकार में अंतर करने में उन्हों ने घोर गलती की है। भविष्य की पत्रकारिता को दिशा देने के स्वप्न को सजोने सम्बन्धी अपने लेख में व्यक्त उनके विचार पत्रकारित की मर्यादा के विरुद्ध जान पड़ता है तथा अपनी पीठ थपथपाने में उन्हांेने शीघ्रता की है। इस सन्दर्भ में पत्र में प्रकाशित विज्ञापन तथा लेख अथवा समाचार की मौलिक भिन्नता को स्पष्ट करना आवश्यक है। जहाँ तक समाचार पत्रों में विज्ञापन प्राकाशन का प्रश्न है प्रकाशक विज्ञापन दाताओं को कोई विशेष स्थान विक्रय करता है जिसमें विज्ञापन दाता अपने नीजी उद्येश्यों की पूर्ति हेतु अपना विज्ञापन प्रकाशित कराता है। वहाँ भी प्रकाशन व्यवस्था इस बात का ध्यान रखती है कि उस विज्ञाापन से किसी दूसरे को हानि तो नहीं हो रहा है और जनता जो समाचार पत्र खरीदकर पढ़ती है उसी क्र्रम में प्रकारान्तर से विज्ञापन दाताओं का संदेश भी पढ़ती है। इस प्रकार उनका प्रचार -प्रसार होता हैं। मूल रूप से समाचार पत्रों मेें छपे विभिन्न समाचार, विचार, आलेख, आलोचना महत्वपूर्ण होता है। प्रतिप्ठित समाचारपत्रों के सम्पादकीय को पाठक राजनैतिक, सामाजिक, वैचारिक 'बैरोमीटर` के रूप में देखते हैं। जहाँ एक ओर जनतंत्र में प्रदत्त सूचना के अधिकार को यथार्थ रूप में जनता तक पहुचाने के महती उत्तरदायित्व का निर्वाह समाचार पत्र करते हैं वहीं दूसरी ओर महत्वपूर्ण बिन्दुओं पर गम्भीर विवेचन के माध्यम से जनता के सोच को भी दिशा प्रदान करते हैं। यही पत्रकारिता की सबसे बड़ी शक्ति है। उक्त सम्पादिका महोदया ने समाचार पत्र की इसी शक्ति के दुरुपयोग की बात अपने उक्त आलेख में की है। किन्तु उन्हें यह समझना चाहिए कि यह शक्ति समाचार पत्र को उसकी विश्वसनीयता के कारण ही प्राप्त होती है। संतुलित तथा अद्यतन समाचार, तटस्थ समाचार विश्लेपण तथा विचारोत्तेजक संपादकीय, गम्भीर तथा विचारपूर्ण आलेख समाचार पत्र को विश्वसनीयता प्रदान करती है और यही विश्वसनीयता उसे लोकप्रिय बनादेती है, जो प्रसार संख्या के रूप में सामने आता है। उक्त निबंध के अनुसार यदि समाचार भी प्रायोजित हों, उसके लिए भी विज्ञापन के तरह पैसे लिए जाएँ तो पैसा देने वाले के मनोनकूल ही समाचार बनाकर छापना होगा। एसी स्थिति में पत्रकारों के लिए उचित अनुचित सोचने विचारने, संपादन करने हेतु कोई स्थान नहीं रह जाता है। फिर 'पीत पत्रकारिता` जैसा श्ब्द और प्रेस की स्वतंत्रता (फ्रीडम ऑफ प्रेस) जैसी किसी विचारधारा का कोई माने ही नहीं रह जाता है। पत्र समूह के स्वामी जो लिखने हेतु जो मूल्य लेंगे वही प्रकाशित करना होगा चाहे वह समाज राप्ट्र के लिए हितकर हेा अथवा न हो। पत्रकारिता जगत में आज भी इतना तो मूल्य शेष है ही कि पत्रसमूह के प्रबंधन के उच्च पदस्थ पदाधिकारियों के द्वारा यदि किसी विशेष समाचार के प्रकाशन के लिए दबाव डाला जाय जो सम्पादक को अनुचित प्रतीत हो तो पत्रकार उसे अनुचित मानते हैं। कई परिस्थितियों में यह भी देखा गया है कि पत्रकार प्रकाशन समूह के प्रबंधन के विरुद्ध भी समाचार प्रकाशत करते हैं। यह स्वतंत्रता जिस दिन बिक गई या बेच दी गयी (जैसा कि उक्त लेख में प्रस्ताव है) तो पत्रकारिता अपनी विश्वसनीयता खो देगी और फिर मुफ्त में वितरित किए जाने वाले पत्रों को भी शायद जनता पढ़ने का जहमत न उठाए। अत: समाचारों को अधिकृत रूप से प्रायोजित करने की बात न तो व्यावहारिक है और नही उचित बल्कि ऐसा करना प्रकारान्तर से सम्पूर्ण पत्रकारिता केा गाली देने के समान है। प्रायोजित समाचारों का विचार करने में पाठक की बौद्धिकता को नजड़अंदाज किया गया है। लाखों पाठक के बीच चिस्वसनीय बनना और लोकप्रिय होना अत्यधिक कठिन उपलब्धि है। प्रकाशित समाचार, समाचार विश्लेपण, लेख सम्पादकीय सभी को पाठक अपने बुद्धि-विवेक की कसौटी पर तौलता रहता है। उसमें तनिक भी त्रुटि पत्र की विश्वसनीयता पर प्रश्न चिन्ह लगा देता है। यदि एक समाचार पत्र में प्रकाशित समाचार केा सत्यापित करने हेतु पाठक दूसरे समाचार पत्रों का सहारा लेने लगे तो समझना चाहिए कि पत्र की विश्वसनीयता कम हो रही है। इस प्रकार हर बड़े (प्रसार संख्या की दृप्टि से ) समाचार पत्र को निरंतर पाठकों के द्वारा ली जाने वाली अग्नि परीक्षा से गुजरना पड़ता है। और इस कार्य में कुशल सम्पादक के निर्देयान में सम्पूर्ण पत्रकार समूह को कठिन परिश्रम के साथ तटस्थता का प्रमाण पाठक को देते रहना पड़ता है। इस प्रकार पत्रकार नित्य प्रति अपनी लेखनी से समय के थपेड़ों का अहसास पाठक को कराते रहते हैं तथा इस क्रम में वे अपने समय का इतिहास भी दर्ज करते रहते हैं साथ ही समय की चेतना से जुड़कर उसे सम्यक दिशा और गति भी प्रदान करते हैं । अत: पत्रकारिता एक पवित्र, उत्तरदायित्वपूर्ण तथा सूक्ष्म बौद्धिक क्षमता की अपेक्षा रखता है। इसे स्थूल रूप में नहीं देखा जाना चाहिए जैसा कि आज कुछ तथाकथित नव्य बौद्धिकता के अनुशरणकर्ता कर रहे हैं।(निश्चय ही जिसमें कुछ पत्रकार भी हैं।) आज भी अधिकांश पत्रकारों को सम्मान की दृप्टि से देखा जाता है। किन्तु उन्हें भी अपनी जिम्मेदारियों का एहसास होना चाहिए । आखिर वे जनतंत्र के प्रहरी हैं। वे अपनी गरिमा को बनाए रखने में यदि असफल होंगे तो समाज के प्रति वह एक घोर अपराध होगा। मेरा तो कहना है कि समाचार प्रायोजित करना, करवाना तथा ऐसी योजनाओं को अम्लीजामा पहनाना और ऐसा प्रयोग करना अनैतिक तो है ही जनतंत्र के चौथे खम्भे को कमजोड़ करने की साजिश माना जायगा ।

Saturday, October 25, 2008

अल्प जन हिताय, अल्प जन सुखाय

अल्प जन हिताय, अल्प जन सुखाय
वे दिन लद गए जब बहुजन हिताय, बहुजन सुखाय की बातें होती थी और उसे शासन के लिए भी आदर्श रूप में अपनाया जाता था। अधिक से अधिक लोगों का कल्याण हो, अधिक सें अधिक लोगों को सुविधा मिले, अधिक से अधिक लोग समृद्ध हो सकें। पर यह सब अब पुरानी बातें हैं। आज के दौड़ में यह भावना भी अन्य पारम्परिक सांस्कृतिक मूल्यों की तरह 'आउट डेट` हो गया है। आज के समाज के कर्ता धर्ता राजतितिज्ञ अब चौबीसों घंटे निर्लज्जता की सीमा पार कर अल्पजन हिताय, अल्पजन सुखाय की बाकलतें करते नहीं थकते। अल्पजन याने अल्पसंख्यक वह भी समग्र रूप से नहीं मात्र मुसलमान। अबतो अल्पसंख्यक कहने से भी नेताओं को सुतुष्टि नहीं मिलती बल्कि साफ-साफ मुसलमान कहना इन्हें अच्छा लगता है।पक्के तौर पर यह नहीं कहा जा सकता कि ये लुभावनी बातें मुसलमानों को भी पसन्द आता है अथवा नहीं ? पर इतना तो जरूर है कि वे इस मायाजाल में स्वत: फसते चले जाते हैं। जितने दिनों से तथाकथित धर्मनिर्पेक्ष पार्टियां अथवा नेता गण अल्पसंख्यकों के उद्धार की वकालत करते आ रहे हैं अगर वास्तव में वे इनके हितैशी होते तो इतने वर्षों में अलपसंख्यकों की सारी समस्याओं का निदान हो गया रहता और उससे आम जनों को भी कुछ सुविधाएं तो अवश्य ही मिलतीं। और तब नेताओं को आजतक अल्पसंख्यकों के कल्याण के लिए नारा नहीं बुलनंद करते रहना परता। 'माई` कम्बिनेसन के बदौलत स्त्तासीन लालू सरकार को अल्पसंख्यकों का कल्याण करते १५(प्रंद्रह) वर्ष बीत गए पर एक भी मुसल्मानों का कल्याण नहीं हो सका। आज भी कमो बेश मुसलमानों की स्थिति वही है जो आज से १५ साल पहले थी। बल्कि स्थिति विपरीत होती जा रहीं है। अल्पसंख्यकों को कोई फायदा हो न हो पर अल्पसंख्यकवाद के नारे इतने अधिक बुलन्द किए जा रहे हैं कि समाज के अन्य समुदायों के मन में उनके प्रति भीतर ही भीतर आक्रोश उत्पन्न हो रहा है। हमें यह पता नहीं चलता कि अल्पसंख्यक समुदाय के भाई लोग इस राजनीतिक दाघ्व पेंच को कैसे नहीं समझ पाते। क्या वे यह नहीं समझते कि तथाकथित धर्मनिर्पेक्ष रानितिज्ञों ने उन्हें उपयोग की वस्तु बना रखा है। चुनावों में मात्र वोट के लिए उनका उपयोग किया जाता रहा है और आज के 'यूज एण्ड थ्रो `संस्कृति की तरह ही काम निकाल कर फेक दिया जाता है। बार- बार ,रात-दिन ,चौबीसो घंटे उनके पक्ष में अनाप- शनाप झूठे लुभावने बयानबाजी कर वे मुसलमानों केा अपने जाल में फघसते रहते हैं और दूसरी ओर भारत के बहुसंख्यक हिन्दू समाज भीतर हीं भीतर अपनी उपेक्षा से दु:खी होते रहते हैं। कहने की आवश्यकता नहीं कि इसका परिणाम अच्छा तो नहींे ही हो रहा है। भारत के मुसलमान अपने हीं देश में अलग थलग पड़ते जाएघ्गे तथा मुख्य धारा से कटते जा रहे हैं। मुसलमान बुद्धिजीवी इन सच्चाइयों को समझते भी हैं। कुछ जागरुक नेताओं ने भी अपने उपयेाग किए जाने पर समय-समय पर घोर आपघि भी जताई है। पर वे भी उस तोंते की तरह जो -'श्किारी आएगा, जाल बिछाएगा, दाना डालेगा, लाभ से उसमें फसना नहीं का रट लगाते हुए जाल में फस गया था ``- वे भी नेताओं के वाक्जाल, झूठे आश्वासनों के भ्रम में पड़े हैं।प्रश्न यह उठता है कि भारत के मुसलमानों केा सामान्य नागरिक की तरह जीने में क्या आपघि है ? क्यों वे विशेषाधिकार पाना चाहते हैं ? आखिर राज्य में विकास होगा सड़क बनेगा, बिजली, पानी, शिक्षा, चिकित्सा, की सुविधाएघ् उपलब्ध होंगे तो क्या उन्हें इसका लाभ नहीं मिलेगा ? क्या उन सड़कों पर केवल हिन्दू चलेंगे ? उन अस्पतालों में केवल बहुसंख्यकों का इलाज होगा ? क्या कानून व्यवस्था सुदृढ़ होने का लाभ उन्हेें नहीं मिलेगा ? अगर हाघ् तो वे समग्र विकास के नाम पर वोट क्यंो नहीं करते ? मुख्य धारा से जुड़कर आम समस्याओं पर उनका ध्यान क्यों नहीं जाता ? उनमें एकता की शक्ति है तो फिर वे इसका इस्तेमाल विकासोन्मुख सरकार की स्थापना में क्यों नहीं करते। यदि समग्र विकास होगा तो स्वत: वे भी विकसित होंगे। बाघ्टो और राजकरो नीति को हम क्यों प्रश्रय देते हैं। केवल मुसलमान ही नहीं हिन्दुओं ने तो अपनी पहचान हीं भुला रखी है। हजारों जातियों में बघ्टकर वे इस तथ्य को भूले बैठे हैं कि अपनी पहचान खोकर कभी सुखी नहीं रहा जा सकता और न प्रगति ही की जा सकती है। जिस प्रकार अल्पसंख्यकों को कोई फायदा नहीं हो पा रहा है, बल्कि राजनीति में पार्टियाघ् अपने फायदे के लिए उनका नाजायज स्तेमाल कर रही हैं। उसी प्राकार विभिन्न जातियों में विभाजित हिन्दुओं का भी उपयांेग ही होगा।अत: फायदा तो इसी में दिखता है कि सब मिलकर इन मायावी मक्कार नेताओं को पुन: बहुजन हिताय बहुजन सुखाय के नारे बुलन्द करने को मजबूर करें जिससे सबको फायदा हो सके । मुसलमान भाइयों को भी तभी लाभ होगा जब समग्र विकास होगा। रहना उन्हें भी इसी समाज में है। खुले मन से सेाचें, अपने विवेक का उपयोग करें और अपना इस्तेमाल वे दूसरे के स्वार्थ के लिए न होने दें।