अल्प जन हिताय, अल्प जन सुखाय
वे दिन लद गए जब बहुजन हिताय, बहुजन सुखाय की बातें होती थी और उसे शासन के लिए भी आदर्श रूप में अपनाया जाता था। अधिक से अधिक लोगों का कल्याण हो, अधिक सें अधिक लोगों को सुविधा मिले, अधिक से अधिक लोग समृद्ध हो सकें। पर यह सब अब पुरानी बातें हैं। आज के दौड़ में यह भावना भी अन्य पारम्परिक सांस्कृतिक मूल्यों की तरह 'आउट डेट` हो गया है। आज के समाज के कर्ता धर्ता राजतितिज्ञ अब चौबीसों घंटे निर्लज्जता की सीमा पार कर अल्पजन हिताय, अल्पजन सुखाय की बाकलतें करते नहीं थकते। अल्पजन याने अल्पसंख्यक वह भी समग्र रूप से नहीं मात्र मुसलमान। अबतो अल्पसंख्यक कहने से भी नेताओं को सुतुष्टि नहीं मिलती बल्कि साफ-साफ मुसलमान कहना इन्हें अच्छा लगता है।पक्के तौर पर यह नहीं कहा जा सकता कि ये लुभावनी बातें मुसलमानों को भी पसन्द आता है अथवा नहीं ? पर इतना तो जरूर है कि वे इस मायाजाल में स्वत: फसते चले जाते हैं। जितने दिनों से तथाकथित धर्मनिर्पेक्ष पार्टियां अथवा नेता गण अल्पसंख्यकों के उद्धार की वकालत करते आ रहे हैं अगर वास्तव में वे इनके हितैशी होते तो इतने वर्षों में अलपसंख्यकों की सारी समस्याओं का निदान हो गया रहता और उससे आम जनों को भी कुछ सुविधाएं तो अवश्य ही मिलतीं। और तब नेताओं को आजतक अल्पसंख्यकों के कल्याण के लिए नारा नहीं बुलनंद करते रहना परता। 'माई` कम्बिनेसन के बदौलत स्त्तासीन लालू सरकार को अल्पसंख्यकों का कल्याण करते १५(प्रंद्रह) वर्ष बीत गए पर एक भी मुसल्मानों का कल्याण नहीं हो सका। आज भी कमो बेश मुसलमानों की स्थिति वही है जो आज से १५ साल पहले थी। बल्कि स्थिति विपरीत होती जा रहीं है। अल्पसंख्यकों को कोई फायदा हो न हो पर अल्पसंख्यकवाद के नारे इतने अधिक बुलन्द किए जा रहे हैं कि समाज के अन्य समुदायों के मन में उनके प्रति भीतर ही भीतर आक्रोश उत्पन्न हो रहा है। हमें यह पता नहीं चलता कि अल्पसंख्यक समुदाय के भाई लोग इस राजनीतिक दाघ्व पेंच को कैसे नहीं समझ पाते। क्या वे यह नहीं समझते कि तथाकथित धर्मनिर्पेक्ष रानितिज्ञों ने उन्हें उपयोग की वस्तु बना रखा है। चुनावों में मात्र वोट के लिए उनका उपयोग किया जाता रहा है और आज के 'यूज एण्ड थ्रो `संस्कृति की तरह ही काम निकाल कर फेक दिया जाता है। बार- बार ,रात-दिन ,चौबीसो घंटे उनके पक्ष में अनाप- शनाप झूठे लुभावने बयानबाजी कर वे मुसलमानों केा अपने जाल में फघसते रहते हैं और दूसरी ओर भारत के बहुसंख्यक हिन्दू समाज भीतर हीं भीतर अपनी उपेक्षा से दु:खी होते रहते हैं। कहने की आवश्यकता नहीं कि इसका परिणाम अच्छा तो नहींे ही हो रहा है। भारत के मुसलमान अपने हीं देश में अलग थलग पड़ते जाएघ्गे तथा मुख्य धारा से कटते जा रहे हैं। मुसलमान बुद्धिजीवी इन सच्चाइयों को समझते भी हैं। कुछ जागरुक नेताओं ने भी अपने उपयेाग किए जाने पर समय-समय पर घोर आपघि भी जताई है। पर वे भी उस तोंते की तरह जो -'श्किारी आएगा, जाल बिछाएगा, दाना डालेगा, लाभ से उसमें फसना नहीं का रट लगाते हुए जाल में फस गया था ``- वे भी नेताओं के वाक्जाल, झूठे आश्वासनों के भ्रम में पड़े हैं।प्रश्न यह उठता है कि भारत के मुसलमानों केा सामान्य नागरिक की तरह जीने में क्या आपघि है ? क्यों वे विशेषाधिकार पाना चाहते हैं ? आखिर राज्य में विकास होगा सड़क बनेगा, बिजली, पानी, शिक्षा, चिकित्सा, की सुविधाएघ् उपलब्ध होंगे तो क्या उन्हें इसका लाभ नहीं मिलेगा ? क्या उन सड़कों पर केवल हिन्दू चलेंगे ? उन अस्पतालों में केवल बहुसंख्यकों का इलाज होगा ? क्या कानून व्यवस्था सुदृढ़ होने का लाभ उन्हेें नहीं मिलेगा ? अगर हाघ् तो वे समग्र विकास के नाम पर वोट क्यंो नहीं करते ? मुख्य धारा से जुड़कर आम समस्याओं पर उनका ध्यान क्यों नहीं जाता ? उनमें एकता की शक्ति है तो फिर वे इसका इस्तेमाल विकासोन्मुख सरकार की स्थापना में क्यों नहीं करते। यदि समग्र विकास होगा तो स्वत: वे भी विकसित होंगे। बाघ्टो और राजकरो नीति को हम क्यों प्रश्रय देते हैं। केवल मुसलमान ही नहीं हिन्दुओं ने तो अपनी पहचान हीं भुला रखी है। हजारों जातियों में बघ्टकर वे इस तथ्य को भूले बैठे हैं कि अपनी पहचान खोकर कभी सुखी नहीं रहा जा सकता और न प्रगति ही की जा सकती है। जिस प्रकार अल्पसंख्यकों को कोई फायदा नहीं हो पा रहा है, बल्कि राजनीति में पार्टियाघ् अपने फायदे के लिए उनका नाजायज स्तेमाल कर रही हैं। उसी प्राकार विभिन्न जातियों में विभाजित हिन्दुओं का भी उपयांेग ही होगा।अत: फायदा तो इसी में दिखता है कि सब मिलकर इन मायावी मक्कार नेताओं को पुन: बहुजन हिताय बहुजन सुखाय के नारे बुलन्द करने को मजबूर करें जिससे सबको फायदा हो सके । मुसलमान भाइयों को भी तभी लाभ होगा जब समग्र विकास होगा। रहना उन्हें भी इसी समाज में है। खुले मन से सेाचें, अपने विवेक का उपयोग करें और अपना इस्तेमाल वे दूसरे के स्वार्थ के लिए न होने दें।
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