Monday, June 10, 2013

बेबाकीपन के प्रतीक ‘नृपेन्द्र’

बेबाकीपन के प्रतीक ‘नृपेन्द्र’    
 कलानाथ मिश्र

हिम्मत से सच कहो तो बुड़ा मानते है लोग,
रो - रो के बात कहने की आदत नहीं रही।

ऐसा लगता है जैसे ये पंक्तियाँ आदरणीय नृपेन्द्रनाथ जी के लिए ही लिखी गयी हों। उनके व्यक्तित्व के एक विषिष्ट पहलू के लिए उक्त पंक्तियाँ विल्कुल सटीक बैठती हैं। नृपेन्द्र जी के सम्पूर्ण व्यक्तित्व का करीबी से अवलोकन यदि किया जाय तो मेरी दृष्टि में उनके व्यक्तित्व की जो सबसे बरी विषेषता है वह है उनका बेबाकीपन। बिना लाग लपेट, बिल्कुल साफगोई से जिसतरह वे अपने विचार रखतेे हैं वह बेमिषाल तो है ही आज के युग की दृष्टि से व्यक्तित्व का यह एक बिलुप्तप्राय गुण है। यही कारण है कि उनके व्यक्तित्व का यह पहलू मुझे सतत् प्रभावित करता रहा है।
बिहार ही नहीं देष के साहित्यक जगत में उन्होंने अपने तटस्थ और संतुलित विचारों के बल पर अपना एक पृथक स्थान बनाया है। ‘अखिल भारतीय भाषा साहित्य सम्मेलन’ के अध्यक्ष के रूप में इन्होंने बिहार में साहित्यिक क्रियाकलापों को गतिमान बनाए रखा है। प्रान्त के विभिन्न भागों में अखिल भारतीय भाषा साहित्य सम्मेलन की शाखाओं का निर्माण कर गुप्त जी ने साहित्य जगत की अमूल्य सेवा की है। आदरणीय गुप्त जी जब बिहार सरकार के पदाधिकारी थे उस समय भी जहाँ भी वे पदस्थापित रहे साहित्यिक गतिविधियों से निरंतर जुड़े रहे और उसे उर्या प्रदान करते रहे । उन स्थानों के लोग इस कारण उन्हें आज भी सराहते हैं। मैं जब बी. एस. काॅलेज दानापुर के हिन्दी विभाग में प्राध्यापक के रूप में पदस्थापित था तो वहाँ के लोग भी सतत् आदरणीय नृपेन्द्र नाथ जी की प्रषंसा किया करते थे। नृपेन्द्र जी जब दानापुर में पदस्थापित थे तो वहाँ उन्हों ने एक साहित्यिक परिवेष का निर्माण किया था जो आज भी दानापुर के साहित्यिक परिवेष में सम्मान के साथ स्मरण किया जाता है और वहाँ के साहित्यिक गतिविधियों को आज भी इससे उर्या मिल रहा है। वह परम्परा चल रही है। अक्सर वहाँ के लोग इनके अवदानों को आदर पूर्वक स्मरण करते है।
गुप्त जी साहित्य को ‘वाद’ से उपर रखते हैं और शुद्ध साहित्य के पक्षधर रहे हैं। प्रेमचंद के शब्दों में यदि ‘साहित्य जीवन की आलोचना है’, अपने काल का प्रतिबिम्ब है तो उसे व्यक्ति और समाज की सच्ची, कलात्मक तस्वीर दिखानी होगी और वह तभी सम्भव है जब रचना में ‘वाद’ से उपर उठकर तटस्थ भाव से चित्र उकेरे जाएँ।
    मुझे याद है सन् दो हजार में सिन्हा लाईब्रेरी में एक संगोष्ठी का आयेाजन था। पटना के तकरीबन सभी प्रमुख साहित्यकार उपस्थित थे। विषय जो भी रहा हो पर  बातें निकलते -निकलते मुख्य मुद्या साहित्य के वर्तमान स्वरूप का बन गया था। स्त्री विमर्ष, दलित विमर्ष आदि की बातें हो रहीं थी। साहित्य की जीवन से सरोकार की भी बातें कुछ साहित्यकारों ने की थी। बारी नृपेन्द्र जी की आई। वे बोलने के लिए खड़े हुए। उम्र के साथ छड़ी का सीधा संबंध तो है ही, उपर से लम्बा शरीर तथा घुटने में परेषानी के कारण नृपेन्द्र जी अधिकतर छड़ी के साथ ही दिखते हैं। कुल मिलाकर यह कि नृपेन्द्र जी का स्मरण अब जब कभी भी आता है उनके साथ उनके छड़ी का भी चित्र मानस पटल पर उभर जाता है। किन्तु वाणी में ताजगी, जोष, जैसे शंखनाद सा गुँजित श्वर हो। शंखध्वनि शंख के नाभि से आता है और उसमें सच स्वतः प्रस्फुटित होता है। उसदिन नृपेन्द्र जी बहुत खुल कर बोले। उन्होंने साहित्य की खेमेंबाजी पर पूरे साहित्य जगत से जुड़े आज के शीर्षस्थ कहे जाने वाले साहित्यकारों को खड़ा-खोटा सुनाया। साहित्य के तथाकथित सिरमौर बने लोगों, पर निषाना साधते हुए डा0 नुपेन्द्र जी ने कहा था - ‘वादो’ में बनावटीपन होता है, स्वार्थ होता है। इन्ही कारणों से आज साहित्य हाषिए पर आ राहा है। ऐसे लोग साहित्य का निरंतर अहित करते हैं। उन्हों ने कहा शुद्ध साहित्य की अभिव्यक्ति के लिए सीधा सच्चा मन और अकलुष भाव चाहिए, तभी तभी उस साहित्यकार की लेखनी में समाज को प्रभावित करने की वह शक्ति होगी जिससे समाज का कल्याण हो सकता है। विभिन्न वाद एवं विमर्ष के नाम पर आज खेमेबाजी हो रहा है। इसे रोकना हमारी पहली जिम्मेदारी होनी चाहिए।’’
आदरणीय नृपेन्द्र जी के वे शब्द मेरे कानो में अभी भी गूँज उठते हैं। मुझे लगा था कि गुप्त जी उसदिन केवल भाषण देने के लिए नहीं बोल रहे थे वे वास्तव में साहित्यिक गुटबाजी से आहत थे। उनके शब्द हृदय की अतल गहड़ाईयों से निकल रहे थे। मुझे लगा था कि साहित्यिक क्षेत्र में स्वस्थ्य एवं उदार विचारों को अभिव्यक्ति देने वाला एक श्रेष्ठ व्यक्तित्व मिल गया है। मुझे भी साहित्यिक खेमेबाजी निरंतर आहत करता रहता है। विवाद हो, विवाद तो साहित्यिक जीवन्तता की निषानी है। पर निम्न स्तरीय खेमेबाजी से तो साहित्य का अहित ही होता है। ऐसे में जब साहित्य जगत के अग्रजन्मा पीढ़ी का कोई महत्वपूर्ण व्यक्ति व्यक्तिगत लाभ- हानि, उँच-नीच, निंदा - प्रषंसा आदि भूलकर साफगोई से साहित्यकारों को फटकार लगाने के लहजे में साहित्य के नाम पर खेमेंबाजी करने से परहेज करने की हिदायत देता दिखता है तो प्रसन्नता होती है। लगता है जैसे कोई है जो अभिभावक की भूमिका निभा रहा है।
नृपेन्द्र जी बिहार के साहित्यिक जगत के अभिभावक की भूमिका में है। उन्हों ने साहित्य की जितनी सेवा की है वह उदाहरणीय है। नवोदित साहित्यकारों के लिए तो वे ‘अल्लादीन के चिड़ाग’ की तरह हैं। युवा साहित्यकारेंा के मनोबल को बढ़ाना, उनकी रचनाओं को छापना, छपवाना नृपेन्द्र जी के साहित्य सेवा की एक अतिरिक्त विषेषता है। अनेक साहित्यकारों को उन्होंने मंच प्रदान किया है, उनकी प्राथमिक पहचान बनाने में सहयोग किया है।
महादेवी ने कहा है कि - साहित्य जीवन का अलंकार मात्र नहीं है वह स्वयं जीवन है, साहित्यकार उस जीवन को सृजन के क्षणों में जीता है और पाठक पढ़ने के क्षणेंा में ।’’ नृपेन्द्र जी भी सम्पूर्ण रूप से साहित्य को जीते हैं। कहा गया है कि साहित्य एक ऐसा दान है जिसे देकर भी हम पाते है, यह ऐसा स्वार्थ है जिसे पास रखकर भी हम देते हैं। नृपेन्द्रनाथ जी साहित्य के स्वार्थ के साथ सतत् समाज को देते रहे हैं और आगे भी देते रहेेगे यही अमारी कामना है। वे दीर्घायु हों, शत् शतायु हों, स्वस्थ्य रहें और साहित्य की श्री बृद्धि में इसी तरह अपना सक्रिय योगदान देते रहे, साहित्य का मषाल एक से अनेक जलाते रहें। यही हमारी कामना है कि वे भरपूर साहित्य को जीएँ।


सम्पर्कः डा0 कलानाथ मिश्र, अभ्युदय, ई- 112, श्रीकृष्णपुरी, पटना-800 001

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