‘देखन में छोटन लगे घाव करे गम्भीर’
सोचा था इस अंक के अंत में सकारात्मक समाचारों का विष्लेषण प्रस्तुत करूँगा ताकि निराशावादी खबरों से पाठकों को कुछ निजात मिल सके, उनके मन को कुछ तस्ल्ली हो सके, साथ ही युवाओं के दिल में नव आशा का संचार हो । पर ऐसा कुछ नहीं कर पा रहा हॅू मैं इसबार भी, बल्कि हम यहाँ एक ऐसी घटना पर विचार करेंगे जो है तो छोटी पर राष्ट्र की शासन व्यवस्था में जिसका अत्यन्त ही नकारात्मक दूरगामी प्रभाव होगा ।
मै उल्लेख कर रहा हूँ बिहार के उन सांसदों एवं राष्ट्र के कर्णधार नेताओं का जों गत दिनों राजधानी एक्सप्रेस के वातानुकूलित प्रथम श्रेणी में बेटिकट, बे झिझक सफर कर रहे थे और जिन्होंने रेल कर्मियों से मारपीट की । प्रश्न यह उठता है कि क्या सांसदों से टिकट की मांग करना इतना बडा गुनाह है कि इमानदारी और निष्ठा पूर्वक अपने कर्तव्य का लिर्वहन कर रहे रेल कर्मचारियों को अपमानित किया जाय और उनके साथ मारपीट की
जमें यहलिखा है कि सांसदों को बिना टिकट बिना आरक्षण यात्रा करने का अधिकार है। वे जिस किसी भी टेªन में चाहें बिना आरक्षण बिना टिकट टेªन के सर्वोच्च श्रेणी में चढ़ जाएँ और किसी भी बर्थ पर कब्जा कर लें । यह ठीक है कि रेल यात्रा के जिए उन्हें कूपन दिया जाता है अैर उस कूपन के आधार पर उन्हें आरक्षित टिकट बनवाकर ही यात्रा करने का प्रावधान है। रेल पदाघ्किारियों का यह अधिकार है कि वे हर चात्री से चाहे वह एक आम हो अथ्वा विषिष्ट, उससे वे समुचित टिकट माॅगें ।पर इतनी सी बात के लिए उनके साथ सभी मर्यादाओं को ताक पर रखकर मारमीट कर हम समाज के सामने कैसा उदाहरण पेष करना चाहतेे हैं । एक समय था जब तटस्थ होकर अपने कर्तव्यों का निर्वाह करने वाले पदाधिकारियों को प्रोत्साहित करने के लिए उन्हें सम्मानित किया जाता था । पर आज जो हो रहा है वह हमारे सामने है। पुरस्कृत करना तो दूर उनके साथ राष्ट्र के कर्णधारों ने एक ओर तो हाथपाई की और दूसरी ओर रेलमंत्री ने पदाधिकारियों को हतोत्साहित करने हेतु डी.आर.एम. का आनन-फानन मे तबादला करदिया । वाह ! मंत्री जी, खूब मान रखा आपने अपने विभाग के निष्ठावान पदाधिकारियों का । यहाँ यह उल्लेख करदेना निष्चित रूप से समीचीन होगा की -लालू प्रसाद जी की इसी मनमानी कार्य पद्धति के कारण पन्द्रह वर्षों के उनके षासनकाल में बिहार से कानून का राज समाप्त हो गया । सर्वत्र उच्छृखलता का राज । आखिर आप लोग सिद्ध क्या करना चाहते हैं ? एक ओर चीख-चीख कर यह घोषणा करते हैं कि कानून सब के लिए बराबर है। कानून से उपर कोई नहीं । फिर आप लोग अपने लिए अपने ही बनाए कानून से उपर होने जैसा व्यवहार की अपेक्षा क्यों करते हैं । हर मामले में दोहरा मापदण्ड क्यों अपनाना चाहते हैं । यदि ऐसा है तो कानून में उसी प्राकार का संषोधन कर दिया जाय । कम से कम बेचारे पदाधिकारी, कर्मचारी तो इस जिल्लत से बचेंगे ।
लालू जी तो इस घटना से इतने आहत हो गए कि इस घटना के जाँच तक आदेष दे दिया। निष्चय ही जाँच का निष्कर्ष क्या होगा इससे भी जनता वाकिफ है। क्यों कि मंत्री जी को इसमेें भी किसी षडयंत्र की बू आ रही है । लालू जी से सम्बन्धित कोई भी घटना यूँ ही नहीं घटित हो सकती, उनके साथ स्वाभाविक रूप् से कुछ नहीं हेाता, सब के पीछे कुछ न कुछ षडयंत्र अवष्य होता है ।
डी.आर.एम. का आनन फानन में किया गया तबादला निष्ठावान कर्मचारियों को अपने कर्तव्य का निर्वाह करने में व्यवधान उत्पन्न करने जैसा है । हमें इससे बचना चाहिए ताकि आम जनता का इसका खमियाजा नही मुगतना परे और भविष्य में पदाध्किारी अपने कर्तव्यों के प्रति उदासीन न हो जएँ ।
ग्लानि से भरे और हतोत्साहित पदाधिकारियों के बल पर विकासोन्मुख तथा कुषल षासन व्यवस्था की कल्पना हम नहीं कर सकते। क्या इतनी सी बात हमारे कर्णधार नहीं समझते। समझते हैं बिल्कुल समझते हैं पर फिर भी जान बूझ कर वे समय -समय पर ऐसा मिषाल प्रस्तुत करते रहते हें कि उनके दस छद्म दबदबा के नीवे उनसे उचित अनुचित जानने का कोई साहस नहीं कर सके । यही तो कार्यषैली थी अंग्रेजों की और जमींदारों की । अब पुनः हम किस सामन्ती प्रथा को जन्म दे रहे है ।
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