Saturday, October 26, 2013



संस्मरण

अब भी अपने अंदर एक गाँव को जीता हूँ- नामवर सिंह

 डा0 कलानाथ मिश्र

पटना की वह एक विरल शाम थी। बुद्धमार्ग स्थित एक प्रतिष्ठित गेस्ट हाउस के वाताकुलित कक्ष में मैं हिन्दी के पुरोधा आलोचक नामवर जी के साथ अनौपचारिक बातों में मषगूल था। कमड़े में धीमी रौषनी जल रही थी। उस रौषानी से कमड़े के एक दीवार पर टंगी तैल चित्र जीवन्त हो उठा था। तकरीबन शाम का साढ़ेसात बज रहा होगा। नामवर जी अभी-अभी एक कार्यक्रम से लौटे थे। और अब वे आराम के मुद्रा में थे। पान का बीड़ा मुहमें था और आदतन खडि़का करते हुए बातें कर रहे थे।

जिनके आलोचनात्मक वक्तव्यों को साहित्य के प्रगति पथ में मार्गषिला की तरह रेखांकित किया जाता हो, जो साहित्य जगत के बेताज बादषाहों में शुमार हो, उनके साथ सहजता के साथ बैठकर अनौपचारिक बातों का सुख सहज ही विस्मृत नहीं होता।

गौर वर्ण, तीखे नाक नक्स, उन्नत ललाट, लम्बा कद-काठी, धोती-कुर्ता के साथ मटमैले रंग की गोल गला की बण्डी से आभूषित भारतीय परिधान और उसपर से पान की सुर्खियों से रक्तिम होंठों के बीच व्याप्त स्मित की रेखाएँ। कुल मिलाकर यह शालीनता की दप-दप चादर में लिपटा व्यक्तित्व। हाँ यदि नामवर जी से आप मिल चुके हैं और करीब से जानने की कोषिष की है आपने उन्हें तो इसके बाद उनका नाम लेना अनिवार्य नहीं।

अवसर था माखनलाल चनुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विष्वविद्यालय, भोपाल की विद्या परिषद द्वारा कृती-व्रती सम्पादकों की कर्मभूमि में उनकी स्मृति प्रसंग का आयोजन। स्मृति-प्रसंग के चैथी कड़ी के रूप में आचार्य षिवपूजन सहाय ‘स्मृति-प्रसंग’ जो उनकी पुण्य तिथि के अवसर पर दिनांक 21-22 जनवरी 2009 को पटना में आयोजित किया गया। माखनलाल चतुर्वेदी विष्वविद्यालय के कुलपति एवं परिष्ठ पत्रकार श्री अच्युतानंद मिश्र जी के साथ मैं, नईधारा के सम्पादक डा0 षिवनारायण जी एवं षिवपूजन सहाय जी के पुत्र मंगलमूर्ति जी सक्रिय आयोजकों में थे।

आयोजन की अध्यक्षता कर रहे थे श्री प्रभाष जोषी एवं मुख्य वक्ता थे श्री नामवर सिंह एवं प्रो0 मैनेजर पाण्डेय। प्रो0 मंगल मूर्ति जी एवं षिवनारायण जी और मैं हवाई अड्डे पर पुष्पगुच्छ लेकर उनके स्वागत के लिए खड़ा था। इन लोगों के ठहरने का इन्तजाम पहले सर्किट हाउस में किया गया था किन्तु हमलोग जब व्यवस्था देखने गए तो वहाँ सब कुछ अव्यवस्थित था। कमड़ा के अलावा वहाँ कोई इन्तजाम नहीं था। बात दरअसल यह थी कि बिहार सरकार के कर्मचारियों की हड़ताल चल रही थी। इसीलिए सर्किट हाउस का रख-रखाव नहीं हो रहा था। एक कप चाय देने वाला भी वहाँ कोई नहीं। आनन-फानन में हमलोगों को ठहरने की व्यवस्था बदलनी पड़ी। बुद्धमार्ग स्थित व्हाईट हाउस में दो कमड़ा मिला। जिसमें डा0 नामवर जी एवं प्रभाष जोषी जी के ठहरने की व्यवस्था की गई तथा सिन्हा लाईब्रेरी रोड स्थित बी.एस.एन.एल के गेस्टहाउस में डा0 मैनेजर पाण्डेय जी को ठहराया गया। हवाई अड्डे पर खड़े होकर हमलोग इसी व्यवस्था के संबंध में बात कर रहे थे कि तभी बिना किसी दीर्घ प्रतीक्षा के प्लेन के आने की सूचना मिली। कुछ ही देर में एयरपोर्ट के मुख्य निकास द्वार से निकलते हुए सबसे आगे उसी चिर परिचित स्मित का भाव अपने होठों में समेटे नामवर जी पधारे, उनके पीछे प्रभााष जोषी तथा मैनेजर पाण्डेय जी थे। मैनेजर पाण्डे जी एयरपोर्ट से बाहर आते ही आतुरता के साथ झोले से अपना चुरुट निकाला और गाड़ी पर बैठते-बैठते सुलगाने लगे। नामवर जी तथा जोषी जी दूसरी गाड़ी पर व्हाईआउस की तरफ बढ़े। 4.30 बजे अपराह्न मैं इन लोगों को लेने गेस्टहाउस गया। नामवर जी मेरे साथ आयोजन स्थल, बी.आइ.ए. हाॅल में पधारे। स्नातकोत्तर विभाग के मेरे दो-तीन षिष्य(रंजीत और मुरारी) भी वहाँ पहले से थे। उन्हों ने नामवर जी को इतने करीब से पहले कभी नहीं देखा था। सभी उनके अधिकाधिक करीब खरा होना चाहते थे।

नमवर जी उसदिन खूब मन से बोले। कार्यक्रम समाप्त होने के उपरान्त प्रभाष जोषी जी कुछ स्थानीय पत्रकारों से घिर गए और नामवर जी को लेकर मैं तथा षिवनारायण जी गेस्टहाउस चले गए। नामवर जी मुँह हाथ धोकर बिल्कुल इत्मिनान होकर कमड़े में पलंग के बगल में लगी कुर्सी पर बैठ गए और हाथ उठाकर अपने कर्ते के बाहों को केहुनी तक समेट लिया। बातें चलने लगी। पीछे से मंगलमूर्ति जी भी वहाँ पहुँच गए थे। 

नामवर जी ने कहा, आपलोगों का कार्यक्रम तो बहुत अच्छा हो गया। फिर चिंतन की मुद्रा में बोले, ऐसा कार्यक्रम करना चाहिए। अपलोगों का और क्या सब चल रहा है। वे बिहार की साहित्यिक गतिविधि के संबंध में जिज्ञासा कर रहे थे। षिवनारायण जी ने कहा-सर! हमलोग यहाँ कुछ न कुछ साहित्यिक गतिविधि करते ही रहते हैं। अभी हाल में रामदरष जी अए थे, हिमांषु जोषी जी आए थे, केदार नाथ जी आए थे...। नामवर जी प्रसंषा की मुद्रा में सर हिला रहे थे।

ऐसा नहीं है कि नामवर जी से मेरी पहली मुलाकात थी। मैं पहले कई बार उनसे पटना में ही विभिन्न कार्यक्रमों में मिल चुका था। लेकिन वे सभी औपचारिक मुलाकातें थीं। उनके व्यक्तित्व का यह दूसरा कोना आज पहली बार मैं झाँक रहा था। बिल्कुल सहज संवेदनषील, साहित्य के निर्माण और संरक्षण के प्रति बिल्कुल सचेत।

मैने बात छेड़ी, सर! आज आपका भाषण बहुत अच्छा था। एक हार्दिकता थी आज आपके वक्तव्य में। 

मुस्कुराते हुए नामवर जी ने कहा, ‘देखिए दरअसल ऐसे कर्मयोगी रचनाकारों के लिए मेरे मन में बहुत श्रद्धा है। फिर चेहरे पर थोड़ी गम्भीरता समेटते हुए कहने लगे, मैं बिल्कुल यह मानता हूँ कि ‘षिवजी’ अपने रक्त को स्याही बनाकर लिखने वाले बलिदानी साहित्यकार थे। कहते हुए नामवर जी का चेहरा दमक रहा था। (नामवर जी अपने आज के वक्तव्य का ही यह अंष दुहरा रहे थे जैसे वे इसे केवल भाषण के लिए नहीं कह रहे हों बल्कि ऐसा वे हृदय से महसूस करते हैं।) उन्होंने कहा षिवपूजन सहाय जी के समस्त रचनाओं का संग्रह होना चाहिए। जहाँ कठिनाई हो मुझसे कहो। प्रकाषन की भी चिन्ता मत करेा। 

मंगलमूर्ति जी ने तपाक से कहा सर! मैं काम तो कर रहा हूँ आपका सहयोग मिल जाय तो ....! नामवर जी ने कुछ विचारते हुए कहा, पत्रिकाओं में प्रकाषित उनके सम्पादकीय और लेखों का भी संकलन प्रकाषित हो जाय तो अच्छा काम हो जायगा। 

फिर पुरानी पत्रिकाओं की बात चल पड़ी। बिहार से प्रकाषित पुरानी पत्रिकाओं की बात होने लगी। उन पत्रिकाओं के चर्चा के क्रम में अवन्तिका की भी चर्चा हुई। षिवनारायण जी ने मुस्कुराकर मेरी ओर इषारा करते हुए कहा, सर! अवन्तिका कलानाथ जी के परिवार से ही प्रकाषित होती थी। अजंता प्रेस इन्ही लोगों का था। नामवर जी ने कहा, अच्छा....! फिर प्रषंसा के साथ कहने लगे, बहुत अच्छी पत्रिका थी। उसके सम्पादक....मैने कहा सुधांषु जी थे, लक्ष्मी नारायण सुधांषु। ओ..हाँ भाई...! देष भर के प्रतिष्ठित रचनाकारों के लेख छपते थे उसमें। कुछ सोचकर फिर बोले, अरे भाई! पत्रिका चलाना बहुत कठिन काम है। अचानक नामवर जी के चेहरे का रंग बदला वे मुस्कुरा उठे, बोले लेकिन यह ‘नई धारा’ तो निरंतर प्रकाषित हो रही है न। मैंने कहा जी निरंतर। षिवनारायण जी ने नईधारा का अद्यतन अंक उन्हें दिखाया। नामवर जी बोले मैं हर अंक देखता हूँ भाई! मैंने कह नईधारा का स्वरूप बहुत सुधर गया है सर! नामवर जी तपाक से बोले, ‘अब नई धारा मुख्य धारा में आ गई है।’ हम सबों के चेहरे पर एक मुस्कान छा गया। षिवनारायण जी ने कहा आप पर भी हमलोग एक अंक केन्द्रित करना चाहते हैं। अत्यंत सरलता से नामवर जी ने कहा निकाल लीजिए। फिर बोले मिल लेना मुझसे। षिवनारायण जी ने कहा, मुझे दिल्ली जाना है वहीं आकर मिल लूंगा, सब बात कर लेंगे। हाँ...हाँ जब मरजी आओ। पर आने के पहले फोन से बात कर लीजिएगा। दिल्ली में तो मेरा भी निरंतर रहना होता नहीं। कभी यहाँ जाना तो कभी.....।

बात चलते-चलते साहित्य से संस्कृति की ओर मुर गई। और संस्कृति गाँव की ओर बहा ले गई। नामवर जी बड़े चटकार से गाँव की चर्चाओं में गहरे उतरते चले गए। बीच में ही क्रम टूटा। षिवनारायण जी ने कहा, आप गाँव से इतने जुड़े हैं और एक पत्रिका ने छाप दिया कि आप गाँव जाते ही नहीं।

नामवर जी की भवें षिकुरीं, थोरे अपने भीतर चले गए। फिर एक क्षण में ही सामान्य हास्य के साथ बोले, जिन्हें जो मन में आता है लिख देते हैं। उन्हंे क्या पता। फिर टालने की मुद्रा में बोले, छोडि़ए..होगी कोई बात। 

एक क्षण मौन के बाद बोलने लगे, देखो गाँव छूटता है क्या? मैं हर साल अपने गाँव जाता हूँ। गाँव मुझे बहुत खींचता है। हाँ अब जमीन जाल का काम तो नहीं ही देखता। एक भाई हैं गाँव में वही सब देख-भाल करते हैं। एक भाई बनारस मेे रहते हैं, समय मिलने पर कभी कभार वहाँ भी चला जाता हूँ। अब हर हमेषा गाँव ही तो नहींे जा सकता। बनारस भी जाना होता है। 

मैंने कहा और खेती बारी, अन्न पानी?

अत्यंत आत्मीयता से नामवर जी कहने लगे, खेतीबारी का सब काम तो वही गाँव वाले भाई ही देखते हैं। जो अन्न पानी गाँव से बचा वह बनारस ही पहुंच जाता है।

हमलोग तल्लीनता से बातें कर रहे थे। मैंने फिर जिज्ञासा भाव से कहा, सर! जमीन जाल ?

मेज पर रखे गिलास से गले को तर करते हुए बड़े आत्मीयता के साथ उन्होंने कहा, ‘देखो भाई! जमीन जाल मैंने कोई बेची नहीं है। डीह-डाबर सब पुरखों की निषानी होती है। बेचने के पक्ष में मैं कभी हूँ भी नहीं। तब खेत खलिहान, अपने से जितना उपज हो सके हो, हाँ मेरा मानना है कि खेत खाली नहीं रहना चाहिए। कहते हुए एक क्षण के लिए मौन हो गए।

अपनी लम्बाई से भी ऊँची साहित्यिक कद को शालीनता के चादर में समेटे नामवर जी अतीताकर्षण मंे खींचते जा रहे थे। फिर उन्होंने कुछ सोचते हुए कहा, अब मेरे बाद जो हो कह नहीं सकता। पर मैं तो अब भी अपने भीतर एक गाँव को जीता हूँ। 

देर हो रही थी। उनके आराम का समय हो चला था। सारे दिन के थकान के बाद भी एक प्रकार की स्फूर्ति से वे भरे थे। पर उनकी उम्रदारज आँखों का सूर्य सांध्य लालिमा के साथ अब भी दीप्तित था। 

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