Saturday, October 26, 2013



संस्मरण

अब भी अपने अंदर एक गाँव को जीता हूँ- नामवर सिंह

 डा0 कलानाथ मिश्र

पटना की वह एक विरल शाम थी। बुद्धमार्ग स्थित एक प्रतिष्ठित गेस्ट हाउस के वाताकुलित कक्ष में मैं हिन्दी के पुरोधा आलोचक नामवर जी के साथ अनौपचारिक बातों में मषगूल था। कमड़े में धीमी रौषनी जल रही थी। उस रौषानी से कमड़े के एक दीवार पर टंगी तैल चित्र जीवन्त हो उठा था। तकरीबन शाम का साढ़ेसात बज रहा होगा। नामवर जी अभी-अभी एक कार्यक्रम से लौटे थे। और अब वे आराम के मुद्रा में थे। पान का बीड़ा मुहमें था और आदतन खडि़का करते हुए बातें कर रहे थे।

जिनके आलोचनात्मक वक्तव्यों को साहित्य के प्रगति पथ में मार्गषिला की तरह रेखांकित किया जाता हो, जो साहित्य जगत के बेताज बादषाहों में शुमार हो, उनके साथ सहजता के साथ बैठकर अनौपचारिक बातों का सुख सहज ही विस्मृत नहीं होता।

गौर वर्ण, तीखे नाक नक्स, उन्नत ललाट, लम्बा कद-काठी, धोती-कुर्ता के साथ मटमैले रंग की गोल गला की बण्डी से आभूषित भारतीय परिधान और उसपर से पान की सुर्खियों से रक्तिम होंठों के बीच व्याप्त स्मित की रेखाएँ। कुल मिलाकर यह शालीनता की दप-दप चादर में लिपटा व्यक्तित्व। हाँ यदि नामवर जी से आप मिल चुके हैं और करीब से जानने की कोषिष की है आपने उन्हें तो इसके बाद उनका नाम लेना अनिवार्य नहीं।

अवसर था माखनलाल चनुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विष्वविद्यालय, भोपाल की विद्या परिषद द्वारा कृती-व्रती सम्पादकों की कर्मभूमि में उनकी स्मृति प्रसंग का आयोजन। स्मृति-प्रसंग के चैथी कड़ी के रूप में आचार्य षिवपूजन सहाय ‘स्मृति-प्रसंग’ जो उनकी पुण्य तिथि के अवसर पर दिनांक 21-22 जनवरी 2009 को पटना में आयोजित किया गया। माखनलाल चतुर्वेदी विष्वविद्यालय के कुलपति एवं परिष्ठ पत्रकार श्री अच्युतानंद मिश्र जी के साथ मैं, नईधारा के सम्पादक डा0 षिवनारायण जी एवं षिवपूजन सहाय जी के पुत्र मंगलमूर्ति जी सक्रिय आयोजकों में थे।

आयोजन की अध्यक्षता कर रहे थे श्री प्रभाष जोषी एवं मुख्य वक्ता थे श्री नामवर सिंह एवं प्रो0 मैनेजर पाण्डेय। प्रो0 मंगल मूर्ति जी एवं षिवनारायण जी और मैं हवाई अड्डे पर पुष्पगुच्छ लेकर उनके स्वागत के लिए खड़ा था। इन लोगों के ठहरने का इन्तजाम पहले सर्किट हाउस में किया गया था किन्तु हमलोग जब व्यवस्था देखने गए तो वहाँ सब कुछ अव्यवस्थित था। कमड़ा के अलावा वहाँ कोई इन्तजाम नहीं था। बात दरअसल यह थी कि बिहार सरकार के कर्मचारियों की हड़ताल चल रही थी। इसीलिए सर्किट हाउस का रख-रखाव नहीं हो रहा था। एक कप चाय देने वाला भी वहाँ कोई नहीं। आनन-फानन में हमलोगों को ठहरने की व्यवस्था बदलनी पड़ी। बुद्धमार्ग स्थित व्हाईट हाउस में दो कमड़ा मिला। जिसमें डा0 नामवर जी एवं प्रभाष जोषी जी के ठहरने की व्यवस्था की गई तथा सिन्हा लाईब्रेरी रोड स्थित बी.एस.एन.एल के गेस्टहाउस में डा0 मैनेजर पाण्डेय जी को ठहराया गया। हवाई अड्डे पर खड़े होकर हमलोग इसी व्यवस्था के संबंध में बात कर रहे थे कि तभी बिना किसी दीर्घ प्रतीक्षा के प्लेन के आने की सूचना मिली। कुछ ही देर में एयरपोर्ट के मुख्य निकास द्वार से निकलते हुए सबसे आगे उसी चिर परिचित स्मित का भाव अपने होठों में समेटे नामवर जी पधारे, उनके पीछे प्रभााष जोषी तथा मैनेजर पाण्डेय जी थे। मैनेजर पाण्डे जी एयरपोर्ट से बाहर आते ही आतुरता के साथ झोले से अपना चुरुट निकाला और गाड़ी पर बैठते-बैठते सुलगाने लगे। नामवर जी तथा जोषी जी दूसरी गाड़ी पर व्हाईआउस की तरफ बढ़े। 4.30 बजे अपराह्न मैं इन लोगों को लेने गेस्टहाउस गया। नामवर जी मेरे साथ आयोजन स्थल, बी.आइ.ए. हाॅल में पधारे। स्नातकोत्तर विभाग के मेरे दो-तीन षिष्य(रंजीत और मुरारी) भी वहाँ पहले से थे। उन्हों ने नामवर जी को इतने करीब से पहले कभी नहीं देखा था। सभी उनके अधिकाधिक करीब खरा होना चाहते थे।

नमवर जी उसदिन खूब मन से बोले। कार्यक्रम समाप्त होने के उपरान्त प्रभाष जोषी जी कुछ स्थानीय पत्रकारों से घिर गए और नामवर जी को लेकर मैं तथा षिवनारायण जी गेस्टहाउस चले गए। नामवर जी मुँह हाथ धोकर बिल्कुल इत्मिनान होकर कमड़े में पलंग के बगल में लगी कुर्सी पर बैठ गए और हाथ उठाकर अपने कर्ते के बाहों को केहुनी तक समेट लिया। बातें चलने लगी। पीछे से मंगलमूर्ति जी भी वहाँ पहुँच गए थे। 

नामवर जी ने कहा, आपलोगों का कार्यक्रम तो बहुत अच्छा हो गया। फिर चिंतन की मुद्रा में बोले, ऐसा कार्यक्रम करना चाहिए। अपलोगों का और क्या सब चल रहा है। वे बिहार की साहित्यिक गतिविधि के संबंध में जिज्ञासा कर रहे थे। षिवनारायण जी ने कहा-सर! हमलोग यहाँ कुछ न कुछ साहित्यिक गतिविधि करते ही रहते हैं। अभी हाल में रामदरष जी अए थे, हिमांषु जोषी जी आए थे, केदार नाथ जी आए थे...। नामवर जी प्रसंषा की मुद्रा में सर हिला रहे थे।

ऐसा नहीं है कि नामवर जी से मेरी पहली मुलाकात थी। मैं पहले कई बार उनसे पटना में ही विभिन्न कार्यक्रमों में मिल चुका था। लेकिन वे सभी औपचारिक मुलाकातें थीं। उनके व्यक्तित्व का यह दूसरा कोना आज पहली बार मैं झाँक रहा था। बिल्कुल सहज संवेदनषील, साहित्य के निर्माण और संरक्षण के प्रति बिल्कुल सचेत।

मैने बात छेड़ी, सर! आज आपका भाषण बहुत अच्छा था। एक हार्दिकता थी आज आपके वक्तव्य में। 

मुस्कुराते हुए नामवर जी ने कहा, ‘देखिए दरअसल ऐसे कर्मयोगी रचनाकारों के लिए मेरे मन में बहुत श्रद्धा है। फिर चेहरे पर थोड़ी गम्भीरता समेटते हुए कहने लगे, मैं बिल्कुल यह मानता हूँ कि ‘षिवजी’ अपने रक्त को स्याही बनाकर लिखने वाले बलिदानी साहित्यकार थे। कहते हुए नामवर जी का चेहरा दमक रहा था। (नामवर जी अपने आज के वक्तव्य का ही यह अंष दुहरा रहे थे जैसे वे इसे केवल भाषण के लिए नहीं कह रहे हों बल्कि ऐसा वे हृदय से महसूस करते हैं।) उन्होंने कहा षिवपूजन सहाय जी के समस्त रचनाओं का संग्रह होना चाहिए। जहाँ कठिनाई हो मुझसे कहो। प्रकाषन की भी चिन्ता मत करेा। 

मंगलमूर्ति जी ने तपाक से कहा सर! मैं काम तो कर रहा हूँ आपका सहयोग मिल जाय तो ....! नामवर जी ने कुछ विचारते हुए कहा, पत्रिकाओं में प्रकाषित उनके सम्पादकीय और लेखों का भी संकलन प्रकाषित हो जाय तो अच्छा काम हो जायगा। 

फिर पुरानी पत्रिकाओं की बात चल पड़ी। बिहार से प्रकाषित पुरानी पत्रिकाओं की बात होने लगी। उन पत्रिकाओं के चर्चा के क्रम में अवन्तिका की भी चर्चा हुई। षिवनारायण जी ने मुस्कुराकर मेरी ओर इषारा करते हुए कहा, सर! अवन्तिका कलानाथ जी के परिवार से ही प्रकाषित होती थी। अजंता प्रेस इन्ही लोगों का था। नामवर जी ने कहा, अच्छा....! फिर प्रषंसा के साथ कहने लगे, बहुत अच्छी पत्रिका थी। उसके सम्पादक....मैने कहा सुधांषु जी थे, लक्ष्मी नारायण सुधांषु। ओ..हाँ भाई...! देष भर के प्रतिष्ठित रचनाकारों के लेख छपते थे उसमें। कुछ सोचकर फिर बोले, अरे भाई! पत्रिका चलाना बहुत कठिन काम है। अचानक नामवर जी के चेहरे का रंग बदला वे मुस्कुरा उठे, बोले लेकिन यह ‘नई धारा’ तो निरंतर प्रकाषित हो रही है न। मैंने कहा जी निरंतर। षिवनारायण जी ने नईधारा का अद्यतन अंक उन्हें दिखाया। नामवर जी बोले मैं हर अंक देखता हूँ भाई! मैंने कह नईधारा का स्वरूप बहुत सुधर गया है सर! नामवर जी तपाक से बोले, ‘अब नई धारा मुख्य धारा में आ गई है।’ हम सबों के चेहरे पर एक मुस्कान छा गया। षिवनारायण जी ने कहा आप पर भी हमलोग एक अंक केन्द्रित करना चाहते हैं। अत्यंत सरलता से नामवर जी ने कहा निकाल लीजिए। फिर बोले मिल लेना मुझसे। षिवनारायण जी ने कहा, मुझे दिल्ली जाना है वहीं आकर मिल लूंगा, सब बात कर लेंगे। हाँ...हाँ जब मरजी आओ। पर आने के पहले फोन से बात कर लीजिएगा। दिल्ली में तो मेरा भी निरंतर रहना होता नहीं। कभी यहाँ जाना तो कभी.....।

बात चलते-चलते साहित्य से संस्कृति की ओर मुर गई। और संस्कृति गाँव की ओर बहा ले गई। नामवर जी बड़े चटकार से गाँव की चर्चाओं में गहरे उतरते चले गए। बीच में ही क्रम टूटा। षिवनारायण जी ने कहा, आप गाँव से इतने जुड़े हैं और एक पत्रिका ने छाप दिया कि आप गाँव जाते ही नहीं।

नामवर जी की भवें षिकुरीं, थोरे अपने भीतर चले गए। फिर एक क्षण में ही सामान्य हास्य के साथ बोले, जिन्हें जो मन में आता है लिख देते हैं। उन्हंे क्या पता। फिर टालने की मुद्रा में बोले, छोडि़ए..होगी कोई बात। 

एक क्षण मौन के बाद बोलने लगे, देखो गाँव छूटता है क्या? मैं हर साल अपने गाँव जाता हूँ। गाँव मुझे बहुत खींचता है। हाँ अब जमीन जाल का काम तो नहीं ही देखता। एक भाई हैं गाँव में वही सब देख-भाल करते हैं। एक भाई बनारस मेे रहते हैं, समय मिलने पर कभी कभार वहाँ भी चला जाता हूँ। अब हर हमेषा गाँव ही तो नहींे जा सकता। बनारस भी जाना होता है। 

मैंने कहा और खेती बारी, अन्न पानी?

अत्यंत आत्मीयता से नामवर जी कहने लगे, खेतीबारी का सब काम तो वही गाँव वाले भाई ही देखते हैं। जो अन्न पानी गाँव से बचा वह बनारस ही पहुंच जाता है।

हमलोग तल्लीनता से बातें कर रहे थे। मैंने फिर जिज्ञासा भाव से कहा, सर! जमीन जाल ?

मेज पर रखे गिलास से गले को तर करते हुए बड़े आत्मीयता के साथ उन्होंने कहा, ‘देखो भाई! जमीन जाल मैंने कोई बेची नहीं है। डीह-डाबर सब पुरखों की निषानी होती है। बेचने के पक्ष में मैं कभी हूँ भी नहीं। तब खेत खलिहान, अपने से जितना उपज हो सके हो, हाँ मेरा मानना है कि खेत खाली नहीं रहना चाहिए। कहते हुए एक क्षण के लिए मौन हो गए।

अपनी लम्बाई से भी ऊँची साहित्यिक कद को शालीनता के चादर में समेटे नामवर जी अतीताकर्षण मंे खींचते जा रहे थे। फिर उन्होंने कुछ सोचते हुए कहा, अब मेरे बाद जो हो कह नहीं सकता। पर मैं तो अब भी अपने भीतर एक गाँव को जीता हूँ। 

देर हो रही थी। उनके आराम का समय हो चला था। सारे दिन के थकान के बाद भी एक प्रकार की स्फूर्ति से वे भरे थे। पर उनकी उम्रदारज आँखों का सूर्य सांध्य लालिमा के साथ अब भी दीप्तित था। 

Friday, October 25, 2013

‘जो दूसरों पे तबसिरा कीजिए सामने आइना रख लिया कीजिए’

‘जो दूसरों पे तबसिरा कीजिए सामने आइना रख लिया कीजिए’

डा0 कलानाथ मिश्र


आज अस्ट्रेलिया में जिस तरह भारतीय छात्रों पर हमले किए जा रहे हैं उसकी जितनी भी भर्तस्ना की जाय कम है। यह अब्छी बात है कि भारत के सभी शीर्ष नेता, बुद्धिजीवी उसकी पुरजोर भर्तस्ना कर रहे है। इस घटना से भारतीयों को कितनी पीड़ा हुई है और कितना आक्रोष उनके भीतर है इसका सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है।
किन्तु अस्ट्रेलिया में झाकने से पहले हमें जरा अपने देष में भी झाकना चाहिए। अस्ट्रेलिया तो एक स्वतंत्र राष्ट्र है उसका पृथक संविधान है। हम पासपोर्ट और वीसा लेकर उस देष में जाते हैं। उन पर उंगली उठाने के पूर्व जरा अपनी गिरेवान पर नजड़ डालिए कि कितने पाक-साफ हैं आप अपने ही देष के नागरिकों के संवैधानिक अधिकरों के रक्षा के प्रति। अपने ही देष में, एक ही संविधान के अंतर्गत जिस तरह महाराष्ट्र में हिन्दी भाषियों, खासकर निर्दोष बिहारियों पर हमले किए जा रहे हैं, जिस तरह राज ठाकरे के नेतृत्व में मनसे के गुण्डों के द्वारा सरेआम बिहारी छात्रों का अपमान किया जाता रहा है, उन्हंे बेरहमी से पीटा जा रहा है और महाराष्ट्र की पुलिस तथा सरकार मूक दर्षक बनी बैठी रही। वे इन घटनाओ पर कराई से निपटने के बजाय जिस तरह तमाषबीन बने रहे वह क्या कम शर्म की बात है। किन्तु इस घटना पर राज्य के साथ साथ भारत सरकार का रुख भी जितना नरम रहा वह क्या संदेष देता है। 
संविधान के अनुसार भारत के किसी भी प्रांत का नागरिक बिना किसी रोक-टोक के षिक्षा, रोजी-रोटी, नौकरी के लिए देष के किसी भी क्षेत्र में जा सकते हैं। भारत के संवैधानिक मर्यादा एवं नागरिक के मूल अधिकरों के रक्षा का शपथ राष्ट्रपति, उपराष्ट्रपति, प्रधान मंत्री से लेकर सभी संवैधानिक पद पर बैठे लोग पद ग्रहण करने के पूर्व लेते हैं। पर महाराष्ट्र की घटना पर उनकी चुप्पी और उदासीनता ने यह सिद्ध कर दिया कि वे उस शपथ के प्रति कितने निष्ठावान है। इतना ही नहीं क्रूरता की पराकाष्ठा पार करते हुए, सभी नियमों को ताक पर रखकर महाराष्ट्र पुलिस ने जिस तरह से सोची समझी रणनीति के तहत इनकाउन्टर दिखाकर सरेआम मीडिया के सामने राहुल की हत्या करदी वह भारत के संविधान पर एक करारा प्रहार है। कम से कम अस्ट्रेलिया की पुलिए इतनी संवेदन हीन तो नहीं हुई है। उन्होंने कानून तो अपने हाथ में नहीं लिया है। अस्ट्रेलिया में भारतीय छात्रों के विरोध प्रदर्षन पर महाराष्ट्र के तर्ज पर पुलिस बर्बरता की हदें तो नहीं पार कर रही है। अस्ट्रेलिया में हो रहे हमले की पुरजोर भर्तस्ना करने के साथ साथ हमें यह भी याद रहना चाहिए कि ‘बोया पेड़ बबूल का आम कहाँ से खाय।’
महाराष्ट्र में दिखावे के लिए जब राज ठाकरे को गिरफ्तार भी किया गया तो लगा जैसे उन्हें हीरो बनाया जा रहा है। उनके गुण्डे उत्पात मचाते रहे और पुलिस मूक दर्षक बनी रही। ऐसी स्थिति में दूसरे देष के सरकार से हम क्या अपेक्षा कर सकते है। अभी हाल मे कानून की पढ़ाई करने गए बिहारी छात्रों से जिसतरह के भरकाउ और क्षेत्रवाद को बढ़ाबा देने वाले प्रष्न पूछे गए उसकी जितनी भी भर्तस्ना की जाए कम होगा। सब से आष्चर्य की बात तो यह है कि प्रष्न पूछने वाले कानून के जानकार थे। उन्हें कम से कम भारतीय संविधान का ज्ञान तो अवष्य होना चाहिए। जिनकी पढ़ाई कानून सम्मत विचारों का पक्ष रखने के लिए होता है वे भी यदि इस तरह की हरकत करते हैं तो यह एक गम्भीर मामला बनता है। कुछ छात्रों, राजनीतिक कार्यकर्ताओं, चंद हुल्लरबाजों के द्वारा किसी बहकावे में आकर इस प्राकर का हर्कत किया जाना एक बात है किन्तु जब पढ़े लिखे लोगों के द्वारा, समाज के प्रबुद्ध वर्ग के द्वारा इस प्रकार की हर्कत की जाती है तो निष्चय ही उनके भीतर भी क्षेत्रवाद का विष आकण्ठ भर गया है। इससे पूरे संघीय ढ़ाचे पर प्रष्न चिन्ह लगाता है। राष्ट्रीय अखण्डता पर गमभीर खतरे का पूर्वाभास मिलता है। हमंे इन घटनाओं को हल्के से नहीं लेना चाहिए। 
आरम्भ में ही जिस प्रकार भाषाई आधार पर प्रांतों का बटवारा किया गया वह एक भयंकर भूल थी। यही कारण है कि भाषा के नाम पर, क्षेत्र के नाम पर, मराठा मानुस के नाम पर ओछी राजनीत करनेवालों को हथगण्डा मिल गया। इस तरह क्षेत्रवाद को बल मिलना निष्चित ही था। ऐसी स्थिति में राष्ट्रभाषा को पूरी तत्परता और शख्ती से लागू किया जाना ही एक मात्र उपाय था जिसके आधार पर देष को टूटने से बचाया जा सकता था तथा राष्ट्रीय भावना को बल मिलता। किन्तु वोट बैंक की ओछी राजनीति के कारण यह नहीं हो पाया। दिनानुदिन राष्ट्रभाषा की स्थिति देष मंे कमजोर होती गयी है। निष्चय ही इससे भविष्य में क्षेत्रवाद को और बल मिलेगा और आने वाले दिनों में भारत की अखण्डता के लिए यह एक बड़ा खतरा बन गया है।
राजठाकरे के नेतृत्व में मनसे के गुण्डा तत्वों द्वारा हिन्दी भाषियों के विरुद्ध चलाया जा रहा अभियान राष्ट्र द्रोह है। महाराष्ट्र सरकार और प्रषासन  जिस तरह से चुप्पी साधे हुए है और इन गुण्डों का मनोबल बढ़ा रहा है इससे तो प्रतीत होता है कि महाराष्ट्र में संवैधानिक सरकार न होकर तानाषाही है।
देष और विदेष में चल रहेे इस विद्वेषात्मक कारवाई की सम्मलित रूप से पुरजोर ढंग से भर्तस्ना की जानी चाहिए लेकिन दूसरे पर अंगुली उठाने के पहले अपने गिरेवान में झाकना चाहिए तभी हमारी बातों को विदेषों में भी गम्भीरता से लिया जायगा। क्यों कि किसी शायर ने ठीक ही कहा है ‘ 
‘जो दूसरों पे तबसिरा कीजिए, सामने आइना रख लिया कीजिए’


Thursday, October 24, 2013

‘देखन में छोटन लगे घाव करे गम्भीर’



‘देखन में छोटन लगे घाव करे गम्भीर’





सोचा था इस अंक के अंत में सकारात्मक समाचारों का विष्लेषण प्रस्तुत करूँगा ताकि निराशावादी खबरों  से पाठकों को कुछ निजात मिल सके, उनके मन को कुछ तस्ल्ली हो सके, साथ ही युवाओं के दिल में नव आशा  का संचार हो । पर ऐसा कुछ नहीं कर पा रहा हॅू मैं इसबार भी, बल्कि हम यहाँ एक ऐसी घटना पर विचार करेंगे जो है तो छोटी पर राष्ट्र की शासन व्यवस्था में जिसका अत्यन्त ही नकारात्मक दूरगामी प्रभाव होगा ।



मै उल्लेख कर रहा हूँ बिहार के उन सांसदों एवं राष्ट्र के कर्णधार नेताओं का जों गत दिनों राजधानी एक्सप्रेस के वातानुकूलित प्रथम श्रेणी में बेटिकट, बे झिझक सफर कर रहे थे और जिन्होंने रेल कर्मियों से मारपीट की । प्रश्न  यह उठता है कि क्या सांसदों से टिकट की मांग  करना इतना बडा गुनाह है कि इमानदारी और  निष्ठा पूर्वक अपने कर्तव्य का लिर्वहन कर रहे रेल कर्मचारियों को अपमानित किया जाय और उनके साथ मारपीट की 


जमें यहलिखा है कि सांसदों को बिना टिकट बिना आरक्षण यात्रा करने का अधिकार है। वे जिस किसी भी टेªन में चाहें बिना आरक्षण बिना टिकट टेªन के सर्वोच्च श्रेणी में चढ़ जाएँ और किसी भी बर्थ पर कब्जा कर लें । यह ठीक है कि रेल यात्रा के जिए उन्हें कूपन दिया जाता है अैर उस कूपन के आधार पर उन्हें आरक्षित टिकट बनवाकर ही यात्रा करने का प्रावधान है। रेल पदाघ्किारियों का यह अधिकार है कि वे हर चात्री से चाहे वह एक आम हो अथ्वा विषिष्ट, उससे वे समुचित टिकट माॅगें ।पर इतनी सी बात के लिए उनके साथ सभी मर्यादाओं को ताक पर रखकर मारमीट कर हम समाज के सामने कैसा उदाहरण पेष करना चाहतेे हैं । एक समय था जब तटस्थ होकर अपने कर्तव्यों का निर्वाह करने वाले पदाधिकारियों को प्रोत्साहित करने के लिए उन्हें सम्मानित किया जाता था । पर आज जो हो रहा है वह हमारे सामने है। पुरस्कृत करना तो दूर उनके साथ राष्ट्र के कर्णधारों ने एक ओर तो हाथपाई की और दूसरी ओर रेलमंत्री ने पदाधिकारियों को हतोत्साहित करने हेतु डी.आर.एम. का आनन-फानन मे तबादला करदिया । वाह ! मंत्री जी, खूब मान रखा आपने अपने विभाग के निष्ठावान पदाधिकारियों का । यहाँ यह उल्लेख करदेना निष्चित रूप से समीचीन होगा की -लालू प्रसाद जी की इसी मनमानी कार्य पद्धति के कारण पन्द्रह वर्षों के उनके षासनकाल में बिहार से कानून का राज समाप्त हो गया । सर्वत्र उच्छृखलता का राज । आखिर आप लोग सिद्ध क्या करना चाहते हैं ? एक ओर चीख-चीख कर यह घोषणा करते हैं कि कानून सब के लिए बराबर है। कानून से उपर कोई नहीं । फिर आप लोग अपने लिए अपने ही बनाए कानून से उपर होने जैसा व्यवहार की अपेक्षा क्यों करते हैं । हर मामले में दोहरा मापदण्ड क्यों अपनाना चाहते हैं । यदि ऐसा है तो कानून में उसी प्राकार का संषोधन कर दिया जाय । कम से कम बेचारे पदाधिकारी, कर्मचारी तो इस जिल्लत से बचेंगे ।



लालू जी तो इस घटना से इतने आहत हो गए कि इस घटना के जाँच तक आदेष दे दिया। निष्चय ही जाँच का निष्कर्ष क्या होगा इससे भी जनता वाकिफ है। क्यों कि मंत्री जी को इसमेें भी किसी षडयंत्र की बू आ रही है । लालू जी से सम्बन्धित कोई भी घटना यूँ ही नहीं घटित हो सकती, उनके साथ स्वाभाविक रूप् से कुछ नहीं हेाता, सब के पीछे कुछ न कुछ षडयंत्र अवष्य होता है ।



डी.आर.एम. का आनन फानन में किया गया तबादला निष्ठावान कर्मचारियों को अपने कर्तव्य का निर्वाह करने में व्यवधान उत्पन्न करने जैसा है । हमें इससे बचना चाहिए ताकि आम जनता का इसका खमियाजा नही मुगतना परे और भविष्य में पदाध्किारी अपने कर्तव्यों के प्रति उदासीन न हो जएँ ।



ग्लानि से भरे और हतोत्साहित पदाधिकारियों के बल पर विकासोन्मुख तथा कुषल षासन व्यवस्था की कल्पना हम नहीं कर सकते। क्या इतनी सी बात हमारे कर्णधार नहीं समझते। समझते हैं बिल्कुल समझते हैं पर फिर भी जान बूझ कर वे समय -समय पर ऐसा मिषाल प्रस्तुत करते रहते हें कि उनके दस छद्म दबदबा के नीवे उनसे उचित अनुचित जानने का कोई साहस नहीं कर सके । यही तो कार्यषैली थी अंग्रेजों की और जमींदारों की । अब पुनः हम किस सामन्ती प्रथा को जन्म दे रहे है ।




जरा सेाचिए । प्रजातांत्रिक संरचना के तहत किसी भी देष में दो स्तरीय कानून नहीं हो सकता । एक आम जनता के लिए और देसरा जन सेवक, न..न, जन षासक के लिए ।

Monday, June 10, 2013

बेबाकीपन के प्रतीक ‘नृपेन्द्र’

बेबाकीपन के प्रतीक ‘नृपेन्द्र’    
 कलानाथ मिश्र

हिम्मत से सच कहो तो बुड़ा मानते है लोग,
रो - रो के बात कहने की आदत नहीं रही।

ऐसा लगता है जैसे ये पंक्तियाँ आदरणीय नृपेन्द्रनाथ जी के लिए ही लिखी गयी हों। उनके व्यक्तित्व के एक विषिष्ट पहलू के लिए उक्त पंक्तियाँ विल्कुल सटीक बैठती हैं। नृपेन्द्र जी के सम्पूर्ण व्यक्तित्व का करीबी से अवलोकन यदि किया जाय तो मेरी दृष्टि में उनके व्यक्तित्व की जो सबसे बरी विषेषता है वह है उनका बेबाकीपन। बिना लाग लपेट, बिल्कुल साफगोई से जिसतरह वे अपने विचार रखतेे हैं वह बेमिषाल तो है ही आज के युग की दृष्टि से व्यक्तित्व का यह एक बिलुप्तप्राय गुण है। यही कारण है कि उनके व्यक्तित्व का यह पहलू मुझे सतत् प्रभावित करता रहा है।
बिहार ही नहीं देष के साहित्यक जगत में उन्होंने अपने तटस्थ और संतुलित विचारों के बल पर अपना एक पृथक स्थान बनाया है। ‘अखिल भारतीय भाषा साहित्य सम्मेलन’ के अध्यक्ष के रूप में इन्होंने बिहार में साहित्यिक क्रियाकलापों को गतिमान बनाए रखा है। प्रान्त के विभिन्न भागों में अखिल भारतीय भाषा साहित्य सम्मेलन की शाखाओं का निर्माण कर गुप्त जी ने साहित्य जगत की अमूल्य सेवा की है। आदरणीय गुप्त जी जब बिहार सरकार के पदाधिकारी थे उस समय भी जहाँ भी वे पदस्थापित रहे साहित्यिक गतिविधियों से निरंतर जुड़े रहे और उसे उर्या प्रदान करते रहे । उन स्थानों के लोग इस कारण उन्हें आज भी सराहते हैं। मैं जब बी. एस. काॅलेज दानापुर के हिन्दी विभाग में प्राध्यापक के रूप में पदस्थापित था तो वहाँ के लोग भी सतत् आदरणीय नृपेन्द्र नाथ जी की प्रषंसा किया करते थे। नृपेन्द्र जी जब दानापुर में पदस्थापित थे तो वहाँ उन्हों ने एक साहित्यिक परिवेष का निर्माण किया था जो आज भी दानापुर के साहित्यिक परिवेष में सम्मान के साथ स्मरण किया जाता है और वहाँ के साहित्यिक गतिविधियों को आज भी इससे उर्या मिल रहा है। वह परम्परा चल रही है। अक्सर वहाँ के लोग इनके अवदानों को आदर पूर्वक स्मरण करते है।
गुप्त जी साहित्य को ‘वाद’ से उपर रखते हैं और शुद्ध साहित्य के पक्षधर रहे हैं। प्रेमचंद के शब्दों में यदि ‘साहित्य जीवन की आलोचना है’, अपने काल का प्रतिबिम्ब है तो उसे व्यक्ति और समाज की सच्ची, कलात्मक तस्वीर दिखानी होगी और वह तभी सम्भव है जब रचना में ‘वाद’ से उपर उठकर तटस्थ भाव से चित्र उकेरे जाएँ।
    मुझे याद है सन् दो हजार में सिन्हा लाईब्रेरी में एक संगोष्ठी का आयेाजन था। पटना के तकरीबन सभी प्रमुख साहित्यकार उपस्थित थे। विषय जो भी रहा हो पर  बातें निकलते -निकलते मुख्य मुद्या साहित्य के वर्तमान स्वरूप का बन गया था। स्त्री विमर्ष, दलित विमर्ष आदि की बातें हो रहीं थी। साहित्य की जीवन से सरोकार की भी बातें कुछ साहित्यकारों ने की थी। बारी नृपेन्द्र जी की आई। वे बोलने के लिए खड़े हुए। उम्र के साथ छड़ी का सीधा संबंध तो है ही, उपर से लम्बा शरीर तथा घुटने में परेषानी के कारण नृपेन्द्र जी अधिकतर छड़ी के साथ ही दिखते हैं। कुल मिलाकर यह कि नृपेन्द्र जी का स्मरण अब जब कभी भी आता है उनके साथ उनके छड़ी का भी चित्र मानस पटल पर उभर जाता है। किन्तु वाणी में ताजगी, जोष, जैसे शंखनाद सा गुँजित श्वर हो। शंखध्वनि शंख के नाभि से आता है और उसमें सच स्वतः प्रस्फुटित होता है। उसदिन नृपेन्द्र जी बहुत खुल कर बोले। उन्होंने साहित्य की खेमेंबाजी पर पूरे साहित्य जगत से जुड़े आज के शीर्षस्थ कहे जाने वाले साहित्यकारों को खड़ा-खोटा सुनाया। साहित्य के तथाकथित सिरमौर बने लोगों, पर निषाना साधते हुए डा0 नुपेन्द्र जी ने कहा था - ‘वादो’ में बनावटीपन होता है, स्वार्थ होता है। इन्ही कारणों से आज साहित्य हाषिए पर आ राहा है। ऐसे लोग साहित्य का निरंतर अहित करते हैं। उन्हों ने कहा शुद्ध साहित्य की अभिव्यक्ति के लिए सीधा सच्चा मन और अकलुष भाव चाहिए, तभी तभी उस साहित्यकार की लेखनी में समाज को प्रभावित करने की वह शक्ति होगी जिससे समाज का कल्याण हो सकता है। विभिन्न वाद एवं विमर्ष के नाम पर आज खेमेबाजी हो रहा है। इसे रोकना हमारी पहली जिम्मेदारी होनी चाहिए।’’
आदरणीय नृपेन्द्र जी के वे शब्द मेरे कानो में अभी भी गूँज उठते हैं। मुझे लगा था कि गुप्त जी उसदिन केवल भाषण देने के लिए नहीं बोल रहे थे वे वास्तव में साहित्यिक गुटबाजी से आहत थे। उनके शब्द हृदय की अतल गहड़ाईयों से निकल रहे थे। मुझे लगा था कि साहित्यिक क्षेत्र में स्वस्थ्य एवं उदार विचारों को अभिव्यक्ति देने वाला एक श्रेष्ठ व्यक्तित्व मिल गया है। मुझे भी साहित्यिक खेमेबाजी निरंतर आहत करता रहता है। विवाद हो, विवाद तो साहित्यिक जीवन्तता की निषानी है। पर निम्न स्तरीय खेमेबाजी से तो साहित्य का अहित ही होता है। ऐसे में जब साहित्य जगत के अग्रजन्मा पीढ़ी का कोई महत्वपूर्ण व्यक्ति व्यक्तिगत लाभ- हानि, उँच-नीच, निंदा - प्रषंसा आदि भूलकर साफगोई से साहित्यकारों को फटकार लगाने के लहजे में साहित्य के नाम पर खेमेंबाजी करने से परहेज करने की हिदायत देता दिखता है तो प्रसन्नता होती है। लगता है जैसे कोई है जो अभिभावक की भूमिका निभा रहा है।
नृपेन्द्र जी बिहार के साहित्यिक जगत के अभिभावक की भूमिका में है। उन्हों ने साहित्य की जितनी सेवा की है वह उदाहरणीय है। नवोदित साहित्यकारों के लिए तो वे ‘अल्लादीन के चिड़ाग’ की तरह हैं। युवा साहित्यकारेंा के मनोबल को बढ़ाना, उनकी रचनाओं को छापना, छपवाना नृपेन्द्र जी के साहित्य सेवा की एक अतिरिक्त विषेषता है। अनेक साहित्यकारों को उन्होंने मंच प्रदान किया है, उनकी प्राथमिक पहचान बनाने में सहयोग किया है।
महादेवी ने कहा है कि - साहित्य जीवन का अलंकार मात्र नहीं है वह स्वयं जीवन है, साहित्यकार उस जीवन को सृजन के क्षणों में जीता है और पाठक पढ़ने के क्षणेंा में ।’’ नृपेन्द्र जी भी सम्पूर्ण रूप से साहित्य को जीते हैं। कहा गया है कि साहित्य एक ऐसा दान है जिसे देकर भी हम पाते है, यह ऐसा स्वार्थ है जिसे पास रखकर भी हम देते हैं। नृपेन्द्रनाथ जी साहित्य के स्वार्थ के साथ सतत् समाज को देते रहे हैं और आगे भी देते रहेेगे यही अमारी कामना है। वे दीर्घायु हों, शत् शतायु हों, स्वस्थ्य रहें और साहित्य की श्री बृद्धि में इसी तरह अपना सक्रिय योगदान देते रहे, साहित्य का मषाल एक से अनेक जलाते रहें। यही हमारी कामना है कि वे भरपूर साहित्य को जीएँ।


सम्पर्कः डा0 कलानाथ मिश्र, अभ्युदय, ई- 112, श्रीकृष्णपुरी, पटना-800 001